यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥15॥
यम्-जिस; हि-निश्चित रूप से; न कभी नहीं; व्यथयन्ति–दुखी नहीं होते; एते ये सब; पुरुषम्-मनुष्य को; पुरुष-ऋषभ-पुरुषों में श्रेष्ठ, अर्जुन; सम-अपरिवर्तनीय; दुःख-दुःख में; सुखम्-तथा सुख में; धीरम्-धीर पुरुष; सः-वह पुरुष; अमृतत्वाय–मुक्ति के लिए; कल्पते-पात्र हे
BG 2.15: हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों परिस्थितियों में स्थिर रहता है, वह वास्तव में मुक्ति का पात्र है।
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पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह वर्णन किया था कि सुख और दुःख की अनुभूति चिरस्थायी नहीं होती। वे अर्जुन को विवेक बुद्धि द्वारा इन द्वंद्वो से उभरने की प्रेरणा दे रहे हैं। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर जानना होगा। (1) हम सुख क्यों चाहते हैं? (2) भौतिक सुखों से हमें संतुष्टि प्राप्त क्यों नहीं होती?
प्रथम प्रश्न का उत्तर अत्यंत सरल है। भगवान अनंत सुखों के महासागर हैं और हम आत्माएँ उनका अणु अंश हैं जिसका मुख्य अर्थ यह है कि हम उस अनंत सुख सागर के अणु अंश हैं। स्वामी विवेकानन्द लोगों को 'हे सच्चिदानंद भगवान के पुत्रों' कहकर संबोधित करते थे। जैसे बालक अपनी माता की ओर आकर्षित होता है ठीक उसी प्रकार से सभी अंश स्वाभाविक रूप से अपने मूल अंशी की ओर आकर्षित होते हैं। इसी प्रकार से अनन्त सुख के महासागर भगवान का अणु अंश होने के कारण हम आत्माएँ भी उसी असीम आनंद के महासागर की ओर आकर्षित होती हैं। इसलिए हम अपना प्रत्येक कार्य संसार में सुख प्राप्त करने के लिए करते हैं। यह सुख कहाँ है और इसे किस रूप में पाया जा सकता है, इस संबंध में सबका मत भिन्न-भिन्न है लेकिन सभी जीव इसके अतिरिक्त और कुछ पाना नहीं चाहते। यही प्रथम प्रश्न का उत्तर है।
दूसरे प्रश्न का अर्थ समझें। परमात्मा का अणु अंश होने के कारण आत्मा स्वभावतः भगवान के समान दिव्य है इसलिए आत्मा भी दिव्य सुख चाहती है ऐसे आलौकिक सुख की तीन विशेषताएँ निम्नांकित है- 1. यह अनन्त मात्रा का होना चाहिए। 2. यह स्थायी होना चाहिए। 3. यह नित्य होना चाहिए। ऐसा सुख केवल भगवान में ही है जिसे सत्-चित्-आनन्द या अनन्त चेतन स्वरूप करुणा सागर के नाम से भी पुकारा जाता है। इन्द्रियों के विषय के संपर्क से हमें जो सुख प्राप्त होता है, वह इन सुखों के विपरीत है तथा यह अस्थायी, सीमित मात्रा का और जड़वत् होता है। इसलिए शरीर से प्राप्त होने वाला लौकिक सुख हमारी दिव्य आत्मा को कभी संतुष्ट नहीं कर सकता।
इस अन्तर को समझने के लिए हमें सांसारिक सुखों और दुःखों के बोध को समान रूप से सहन करने का अभ्यास करना चाहिए तभी हम इन द्वंद्वो से ऊपर उठेंगे और भौतिक शक्तियाँ हमें अधिक समय तक दुःखी नहीं कर पायेंगी।